पहाड़ी देश
अंगड़ाइयाँ लेती
सड़क खड़ी
—
रण प्रदेश
थपेड़े से त्रस्त सी
सड़क लेटी
—
शहर देख
खाबड़ कूबड़ सी
सड़क दौड़ी
—
गाँव पहुँची
सड़क खो ही गई
खेतों के बीच
-आरती परीख ५.१२.२०२२
वक़्त
माता/पिता का ख़त
आंखों से छलकता
सुहाना वक़्त
—-
वक़्त बेवक़्त
जर्जरित दास्तानें
डेरा जमाये
—-
वक़्त की मार
क्षीण होती ही चली
वक़्त के साथ
—-
चुरा ले गया
काले घने से बाल
वक़्त लुटेरा
—-
स्व में ही रत
माता-पिता के लिये
कहाँ है वक़्त?!
_ आरती परीख ५.१२.२०२२
वादें
शब्दों से पूरा
इरादों से हो आधा
“वादा” नाम का!
✍🏻 आरती परीख १८.११.२०२२
शाम/संध्या
“शाम/संध्या” विषय पर कुछ हाइकु जो मैंने लिखे है…..
बाँहें पसार
छत पर जा बैठी
शाम की धूप
—-
नीला आसमां
स्वप्निल रंग भरे
सुहानी संध्या
—-
रवि की कश्ती
समंदर में डूबी
आकाश लाल
—-
मुँडेर बैठी
अलसाई सी धूप
संध्या ठहेकी
—-
दिवस लुप्त
समुद्र में घुलती
केसरी धूप
—-
संध्या स्वरुप
नदियाँ में नहाती
फकीरी धूप
—-
लहुलुहान
आसमां की सैर में
संध्या के पैर
—-
गोता लगाये
सागर में सूरज
आसमां लाल
—-
संध्या फलक
क्षितिज के मस्तिष्क
सूर्य तिलक
—-
सूरज रथ
क्षितिज पर थमा
गोधूलि बेला
—-
सूरज ढला
आसमां में चमके
संध्या लालित्य
—-
रवि का ठेला
समंदर में गिरा
सांझ की बेला
—-
रवि का ठेला
समंदर में गीरा
ठहाके संध्या
—-
सूर्य किरणें
दुपट्टे में लपेट
ढलती सांझ
—-
बादल भोले
सुनहरी झाँकती
उषा/संध्या किरणें
—-
स्वर्णिम संध्या
अलौकिक नजारा
पर्वत कंघा
—-
दिवस लुप्त
समुद्र में घुलती
केसरी धूप
—-
शिशिर ऋतु
धूँध दुपट्टा ओढ़े-
शर्मिली संध्या
—-
कोहरा लिए-
संध्या ठुमक रही
रुठे चांदनी
—-
बिखर रही-
सूरज की किरणें
सुहानी शाम
—-
संध्या निखरी
काला रंग छिटके-
निगोडी निशा
—-
साँझ की बेला
मौसम अलबेला
मन अकेला
—-
संध्या जो ढली
चांद सितारों संग
निशा विचरे
—-
गोधूलि बेला
दृश्य है अलबेला
जीवन ठेला
—-
गोधूलि बेला
अंबर पे सजेगा
निशा का ठेला
—-
गम की शाम
समंदर में डूबी
अंधेरा छाया
—-
नीला अंबर
काला कम्बल ओढ़ें
शाम जो ढली
—-
द्वार पे खड़ी
चांद तारोंकी सेना
क्षितिज लाल
—-
लाल क्षितिज
तुफानी समंदर
सूरज डूबा
—-
शाम ढलते
समुद्र में नहाये
पथिक सूर्य
—-
सूरजदेव
भगवा लहराये
सुबह शाम
✍🏻 आरती परीख
छबि
मृत्यु पर्यन्त
झुर्रीदार चहेरा
छबि में कैद
✍️ आरती परीख १८.७.२०२२
सायली छंद
१.
आदमी
भागता मिला
पूरी करने में
सुकून कि
ख्वाहिश..
२.
अमूल्य
रहेगा सदा
हर एक लम्हा
संग बिताया
हमने..
३.
इम्तिहान
लेती रहेगी
अंत सांस तक
यह जिंदगी
कमबख्त..
४.
श्वेत
कंबल ओढे
पर्वत माला खडी
शिशिर का
कहर..
५.
बिटिया
छोड़ चली
बचपन और बचपना
पिता के
आंगन..
६.
झोपड़ी
छत टपकती
चुल्हे में पानी
भडक रही
जठराग्नि..
७.
छाया
बसंत राज
पीली चूनर तले
सरसों खेत
लहराते..
८.
वास्तविक
जो है
वो ही करवाता
व्यक्ति का
अनुभव..
९.
असाध्य
जो था
साध्य बना देती
व्यक्ति की
लगन..
१०.
पहुंचाता
मंजिल तक
येन केन प्रकारेण
व्यक्ति का
साहस..
_ आरती परीख (२३.६.२०२२)
काव्य विधा “सायली” के बारे में….
सायली एक पाँच पंक्तियों और नौ शब्दों वाली कविता है | मराठी कवि विशाल इंगले ने इस विधा को विकसित किया हैं | बहुत ही कम वक्त में यह विधा मराठी काव्यजगत में लोकप्रिय हुई और कई अन्य कवियों ने भी इस तरह की रचनायें रची |
नियम आसान हैं. ..
◆ पहली पंक्ति में एक शब्द
◆ दुसरी पंक्ति में दो शब्द
◆ तिसरी पंक्ति में तीन शब्द
◆ चौथी पंक्ति में दो शब्द
◆ पाँचवी पंक्ति में एक शब्द
और
◆ कविता आशययुक्त हो |
इस तरह से सिर्फ नौ शब्दों में रचित पूर्ण कविता को सायली कहा जाता हैं |
यह शब्द आधारित होने के कारण अपनी तरह कि एकमेव और अनोखी विधा है |
પીપળો
જળ કે સ્થળ સાથે
મારે શું નિસ્બત?!
મારે તો,
બસ
મન ભરીને જીવવું છે.
.
સ્હેજ ભીનાશ મળી નથી કે,
પીપળા સમું
અકારણ જ
પાંગરવું છે…
✍️ આરતી પરીખ ૧૬.૬.૨૦૨૨
સાહ્યબો
હૈયાના હિંડોળે ઝૂલે રે મારો સાહ્યબો,
જોબનના ઉલાળે હસે રે મારો સાહ્યબો,
લહેરિયું લાલ ને ઘમ્મર વલોણી ચાલ,
નખરાળાં નયને વસે રે મારો સાહ્યબો..
✍️ આરતી પરીખ
प्यार-इश्क़-महोब्बत
प्यार करनेवाले कभी सोचते नहीं,
सोच सोचकर प्यार होता ही नहीं!!
सनमम हरजाई नज़रों से ऐसा जाम पीला गये,
हमारै अंगअंग में पगली प्रित अगन जला गये।
नज़रें टकराई, इजाज़त मिल गई,
प्यार समझा था, इबादत बन गई!
जबजब जो भी मीला प्यार से कबुल कीया,
बुलबुलने अपनेआप को पिंजरमें कैद कीया !!
हमारे अपने ही हमें सबसे ज्यादा सताते हैं,
पराये तो जूठा प्यार आसानी से जताते हैं!
हवा के झोंके की तरह ही हम आजाद जीव,
प्यार महोब्बत से मिलना जुलना अपनी नीव!
जबसे अपने-आप से प्यार करने लगे,
अजनबी भी प्यार से गले मिलने लगे!
✍️आरती परीख
जीवनदात्री
कौन हूं मैं?
बचपन में
भोलीभाली..
नखरेवाली..
पहाडों में
कूदती.. फिरती..
प्यारे झरनों सी….
हर ढलान पर ढल गई..
कलकल..
छलछल..
कलकल..
छलछल..
बहती रही…
युवां जो हुई..
उन्माद से
मस्त…
चट्टानों से टकराती,
बलखाती..
इठलाती..
झप्पाक…
जल प्रपात सी कूद गई..
पथ्थर चीरती..
कहीं टकराती…
तो,
चिल्लाती…
धूप में चमकती,
चांदनी रात में लुभावती…
खल-खल…
खल-खल…
बहने लगी….
प्रौढावस्था में
दो किनारों बिच
शांत…
सरिता सी,
अपनेआप को
सकुट कर
चुपचाप
बहती रही..
.
.
मुझे
कहीं बांध से बांधा गया,
तो
कहीं कूएं से सींचा गया,
.
.
हरहाल में
मिट्टी में दबे बीज को
अंकुरित करती रही..
.
.
.
तप्त रवि से त्रस्त…
खारे समंदर से उठी
भाप सी…
आकाश में उडी..
पर,
घने काले बादलों में फस गई…
दूर देशावर
अन्जान ईलाकों में
उडती.. फिरती..
नसीब से
बीच में कहीं
पहाड़ी या जंगलों से
मिल गया
जो
थोड़ा सा दुलार…
तो…….???
.
जो
ओसबूंद बनी
तो
रवि किरणों से
लुप्त हो गई।
और
अगर
कहीं
मेघबूंद सी
रेगिस्तान में गीरी
तो,
रेत में
विलीन हो गई।
मगर
खुशनसीबी से,
गांव-शहर पर
वर्षा बूंदों सी बरसी
तो,
…..
फिर क्या?!
.
फिर वो ही जीवन चक्र!
.
सारी दुनिया
अपने स्वार्थ अनुसार
मुझे
बांधने के लिए
बेचैन।
.
.
अभी भी
मैं सोचती रही…
.
और
अंतर्नाद सुनाई दिया…
इतना मत सोच
जैसी भी मीली
जितनी भी मीली…
जी भर के जी ले….
जीवनदात्री है तूं….
जीवनदात्री…..!!
_आरती परीख